आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना
आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिन्दी के सुप्रसिद्ध आलोचक , साहित्य इतिहासकार एवं निबंध कार थे। इन्होंने अपने आलोचना ग्रंथों से आलोचना का एक नया मार्ग प्रशस्त किया। ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। इन्होंने हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में कार्य करते हुए एक आदर्श स्थापित किया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिन्दी आलोचना के आधार स्तम्भ , युग निर्माता एवं पथ प्रदर्शक आचार्य थे। आलोचना के क्षेत्र में उनके महत्व का आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि आलोचना साहित्य के इतिहास का अध्ययन शुक्ल पूर्व युग , शुक्ल युग और शुक्लोत्तर युग के नाम से किया जाता है।
वस्तुत: आलोचना का प्रारम्भ भी अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह भारतेन्दु युग में ही हो गया था । परन्तु शुक्ल जी ने इसे एक नयी दृष्टि देकर युगान्तर कारी रूप दिया। उन्होंने चिंतन प्रधान आलोचना का सूत्रपात किया और आलोचना के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों को अपनाया।
शुक्ल जी की आलोचनात्मक कृतियां हैं:-
तुलसीदास , जायसी एवं सूरदास पर की गयी आलोचना ; हिन्दी साहित्य का इतिहास ; चिंतामणि (निबंध संग्रह) ; रस मीमांसा ; काव्य में रहस्यवाद ; अभिव्यंजनावाद इत्यादि।
चिंतामणि में संग्रहित निबंध , काव्य में रहस्यवाद , काव्य में लोक-मंगल की साधनावस्था , अभिव्यंजनावाद, रस मीमांसा इत्यादि शुक्ल जी के सैद्धांतिक आलोचना हैं। और तुलसी , जायसी , सूर , छायावाद , रहस्यवाद इत्यादि पर लिखित समीक्षा इनकी व्यावहारिक आलोचना हैं।
शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि रसवादी है। इनकी समीक्षा का सैद्धांतिक आधार रस सिद्धांत एवं भारतीय रसवाद है। इस दृष्टि से इन्होंने रसदशा की दो कोटियां स्वीकार की है।पहली उत्तम कोटि का काव्यगत रस और दूसरी मध्यम कोटि का काव्यगत रस। जब सहृदय पाठक काव्यगत आश्रय के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है तो उत्तम कोटि की रसदशा होती है और जब पाठक केवल कवि के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तब रसदशा मध्यम कोटि की होती है।
काव्य में रहस्यवाद शुक्ल जी की पहली सैद्धांतिक आलोचना हैं।ये पहले समीक्षक है जिन्होंने कवियों की आंतरिक विशेषताओं पर प्रकाश डाला और प्राचीन रस पद्धति और पाश्चात्य समालोचना पद्धति का समन्वय किया। इन्होंने सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आलोचना के साथ गवेषणात्मक एवं व्याख्यात्मक आलोचना का भी मार्ग प्रशस्त किया। इनकी भाषा गंभीर और परिष्कृत साहित्यिक हिन्दी है।
वस्तुत: आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिन्दी आलोचना में गौरवपूर्ण स्थान है । ये आलोचना के क्षेत्र में पथ प्रदर्शक आचार्य है । अपनी आलोचना से इन्होंने अनेक नये प्रतिमान स्थापित किये हैं । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में - " आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसा गंभीर और स्वतंत्र समालोचक हिन्दी में तो क्या अन्य भारतीय भाषाओं में दूसरा न हुआ।"
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