संदेश

हिन्दी साहित्य लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सूरदास की भक्ति भावना

चित्र
सूरदास के काव्य में निहित भक्ति का स्वरूप                                           (स्रोतः इन्टरनेट)              हिन्दी साहित्याकाश में सगुणोपासक कृष्ण भक्त कवियों की परम्परा में सूरदास का स्थान अनन्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- ‘‘जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार कृष्ण चरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का। वास्तव में ये हिन्दी काव्य गगन के सूर्य और चन्द्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्त शिरोमणि कवियों की वाणी में पायी जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है कि- ‘‘उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बलवीर। केशव अर्थ गंभीर को, सूर तीन गुन धीर ।।’’ इसी प्रकार सूरदास की प्रशस्ति में किसी कवि ने यह भी कहा है कि-  ‘‘किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर। किधौं सूर को पद लग्यों, बेध्यो सकल सरीर ।।’’ सूरदास बल्लभाचार्य के शि

कथाकार शिवानी

             सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. ‘शिवानी’ का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात) में हुआ। उनके पिता अश्विनी कुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे। माता और पिता दोनों ही विद्वान संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इनके दादा जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान पं. हरिराम पाण्डे थे। पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमेरिका में बसे पुत्र के परिवार के बीच  समय बिताया। उनकी रचनाओं में जीवन की इन विविधताओं की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।              शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए शान्तिनिकेतन भेजी गई, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी सलाह थी कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए। शिवानी ने इससे प्रभावित होकर हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘

विजयदेव नारायण साही: नयी कविता के प्रमुख कवि

    विजयदेव नारायण साही नयी कविता के प्रतिष्ठित कवि और तीसरे सप्तक के प्रमुख कवि हैं। उनकी कविताओं में लघु मानव का चित्रण प्रमुखता से हुआ है। यह लघु मानव समाज के गरीब और शोषित मजदूर वर्ग है। वे कवि के साथ ही आलोचक भी थे। विजयदेव नारायण साही का जन्म 7 अक्टूबर सन् 1924 ई॰ को कबीर चौरा, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री ब्राह्मदेवनारायण साही तथा माता का नाम सूरतवन्ती साही था।    साही जी ने 1948 ई॰ में एम॰ए॰ पास किया और उसके बाद काशी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य आरंभ कर दिया। 1970 में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में रीडर हुए और 1978 में वहीं प्रोफ़ेसर भी हुए। विजयदेव नारायण साही नयी कविता आंदोलन के कवि थे। इस आंदोलन के माध्यम से साही जी ने अपना पूरा जीवन शोषित मजदूरों एवं महिलाओं के उत्थान के लिए लगाया। और उनके जीवन पर आधारित यथार्थपरक कविताएं भी लिखते थे।उन्होंने कालीन-बुनकरों को संगठित कर उनका यूनियन बनाया और उनकी लड़ाई लड़ते रहे। महिला कताईकारों के लिए भी संघर्ष किया और उन्हें उचित वेतन दिलवाया। साही जी कानून की पुस्तकें पढ़ कर मजदूरों के मुकदमे को हाई कोर्

आधुनिक युग के कबीर बाबा नागार्जुन

       आधुनिक युग के कबीर कहे जाने वाले बाबा नागार्जुन अपनी सशक्त और निर्भीकतापूर्ण लेखनी के कारण सदैव याद किए जाते रहेंगे। वे प्रगतिवादी विचारधारा के कवि थे। उन्होंने अपनी कविताओं में कबीरदास के समान व्यवस्था के प्रति अत्यंत तीखा व्यंग्य किया है।आधुनिक काल में छायावाद के बाद का अत्यंत सशक्त साहित्यांदोलन प्रगतिवाद है। प्रगतिवाद का मूल आधार सामाजिक यथार्थवाद रहा है। प्रगतिवादी काव्य वह है, जो व्यवस्थाओं के प्रति रोष व्यक्त करता है और उसके बदलाव की आवाज़ को बुलंद करता है। नागार्जुन के काव्य में प्रगति के स्वर सर्वप्रमुख है। सही अर्थों मे नागार्जुन जनता के कवि हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में  गरीबी, भुखमरी, बीमारी, अकाल, बाढ़ जैसे सामाजिक यथार्थ का सूक्ष्म चित्रण किया है। साथ ही सत्ताधारियों की संवेदनहीनता और अकर्मण्यता पर भी वार किया है।        हिंदी कविता में सबसे अधिक संवेदनशील और लोकोन्मुख जनकवि नागार्जुन की विशिष्टता इसी बात में रही है कि उनकी रचनाओं और उनके वास्तविक जीवन में गहरा सामंजस्य है। नागार्जुन ने अपने युगीन यथार्थ और समसामयिक चेतना को अपनी कविता के माध्यम से मुखरित किया है,

कामायनी महाकाव्य का कथानक

       कामायनी जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य है। जिसका प्रकाशन  सन् 1935 ई. में हुआ था।यह हिन्दी साहित्य का अपूर्व महाकाव्य है। इसके कथानक का सूत्र ऋग्वेद , पुराणों तथा ब्राह्मण ग्रंथों में पाया जाता है।इस महाकाव्य में देव सृष्टि के विनाश के पश्चात मनु का प्रकृति पर विजय पाना , इड़ा के सहयोग से नागरिक सभ्यता को विकसित करना , जीवन संघर्ष के पश्चात् आनन्द का साक्षात्कार करना और आनन्द प्राप्त करने का वर्णन किया गया है।इस महाकाव्य में 15 सर्ग है।सर्गो के नाम इस प्रकार है- चिंता , आशा ,श्रद्धा , काम ,लज्जा ,वासना , कर्म , ईर्ष्या , इड़ा , स्वप्न , संघर्ष , निर्वेद , दर्शन , रहस्य , आनन्द। इस महाकाव्य के नायक मनु हैं और मानव उनकी संतान।             कामायनी महाकाव्य का प्रारम्भ जल प्लावन की घटना से होता है। जिसमें समस्त देव संस्कृति नष्ट हो जाती है। और वहां केवल मनु ही बचते हैं।जलप्लावन को देखकर मनु चिंतित हो जाते हैं कि अब भविष्य में सृष्टि का नवनिर्माण कैसे होगा। बाढ़ समाप्त होने पर प्रकृति का निखरा हुआ रूप मनु के सामने आता है और मनु के हृदय में भविष्य के प्रति आशा का संचार होता है।

धारावाहिक लेखक मनोहर श्याम जोशी

       मनोहर श्याम जोशी हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यास कार , व्यंग्य लेखक , पत्रकार , दूरदर्शन धारावाहिक लेखक , जनवादी विचारक , फिल्म पटकथा लेखक , संपादक , कुशल प्रवक्ता तथा स्तंभ लेखक थे। इनका जन्म 9अगस्त 1933 ई. को राजस्थान के अजमेर के एक प्रतिष्ठित एवं सुशिक्षित परिवार में हुआ था। परिवार में शैक्षिक वातावरण था जिसके परिणामस्वरूप इनमें विद्याध्ययन तथा संचार साधनों के प्रति जिज्ञासा का भाव विद्यमान था। जो आगे चलकर इनके व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध हुआ।            लखनऊ विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई करते समय ही इन्होंने ' इलेक्ट्रॉन का रोमांस ' नामक लेख लिखा। फिर वहीं से अमृतलाल नागर के प्रभाव से कहानी विधा से लेखन की शुरुआत की। बाद में जब ये पत्रकार बनने के लिए दिल्ली आए तो अज्ञेय जी के सम्पर्क में आकर कविता लिखने लगे। अज्ञेय जी तीसरा सप्तक में जोशी जी को शामिल करना चाहते थे परन्तु समय पर कविता न मिल पाने के कारण वंचित रह गए। जोशी जी कूर्मांचली नाम से कविता करते थे। मरणोपरांत इनकी कविताओं का संग्रह "कूर्मांचली की कविताएं " शीर्षक से प्रकाशित हुआ। जोशी ज

जनवादी कवि नागार्जुन

         प्रगतिवादी विचारधारा के कवि  नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र है। इनका जन्म सन् 1911 ई. में दरभंगा जिले के तरौनी गांव में हुआ था। नागार्जुन के पिता अत्यंत रूढ़िवादी मैथिल ब्राह्मण थे।इनका पारिवारिक वातावरण दरिद्रता पूर्ण था, जिससे इनका बचपन अत्यंत संघर्षमय परिस्थितियों में बीता। संघर्षों ने इनके सरल व्यक्तित्व को स्वर्ण के समान अग्नि में तपाकर दैदीप्यमान कर दिया था। नागार्जुन ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा स्वामी सहजानंद से प्राप्त की। जिनकी प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक विचारधारा का इन पर गहरा प्रभाव पड़ा। नागार्जुन का व्यक्तित्व सरल , सहज और विरोधी स्वभाव वाला था। जो इनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकता है। प्रेम से लोग उन्हें बाबा कहकर बुलाते थे।           नागार्जुन हिन्दी , मैथिली और संस्कृत भाषा में समान रूप से कविता करते थे।ये मैथिली भाषा में यात्री उपनाम से कविता करते थे। नाग ार्जुन की रचनाओं का परिचय इस प्रकार है :- संस्कृ त : धर्मलोक शतकम्  , देश शतकम्  , कृषक शतकम् ,श्रमिक दशकम्। मै थि ली : ( काव्य ग्रं थ): - चित्रा , विशाखा , पत्रहीन नग्नगाछ । ( उप न्यास): - पारो , नवत

राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी का साहित्यिक परिचय

      राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म उत्तर प्रदेश के चिरगांव जिला झांसी में 3 अगस्त 1886 ई.को हुआ था। इनके पिता का नाम राम प्रसाद कनकने था।और माता कौशल्या बाई थी। इनके माता पिता वैष्णव थे। दोनों विष्णु भगवान के परम भक्त थे। गुप्त जी पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इनके पिता भी कविता करते थे।इस कारण घर का वातावरण साहित्यिक था।और गुप्त जी की भी रूचि बचपन से ही साहित्य के प्रति थी। खेलकूद में अधिक झुकाव के कारण स्कूली शिक्षा छूट गई और फिर इन्होंने घर पर ही हिन्दी संस्कृत का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी इनके गुरु थे। जब ये 12 वर्ष के थे तभी ब्रजभाषा में कविता लिखकर साहित्य लेखन की शुरुआत की।       इनकी आरंभिक कविताएं वैश्योपकारक पत्रिका में प्रकाशित होती थी।इसी बीच वे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के सम्पर्क में आए और उन्हें अपना काव्य गुरु बना लिया।और उनसे प्रभावित होकर खड़ी बोली में कविताएं करने लगे। खड़ी बोली की इनकी पहली कविता 'हेमन्त' 1905 ई. में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। गुप्त जी का पहला काव्य ग्रंथ 'रंग में भंग' है जिसका प्रकाशन 1909 ई. में हुआ था।