कथाकार शिवानी

             सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. ‘शिवानी’ का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात) में हुआ। उनके पिता अश्विनी कुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे। माता और पिता दोनों ही विद्वान संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इनके दादा जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान पं. हरिराम पाण्डे थे। पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमेरिका में बसे पुत्र के परिवार के बीच  समय बिताया। उनकी रचनाओं में जीवन की इन विविधताओं की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

             शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए शान्तिनिकेतन भेजी गई, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी सलाह थी कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए। शिवानी ने इससे प्रभावित होकर हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा।

शिवानी की प्रमुख रचनाएं हैं :-
उपन्यास : कृष्णकली, कालिंदी, अतिथि, पूतों वाली, चल खुसरों घर आपने, श्मशान चंपा, मायापुरी, कैंजा, गेंदा, भैरवी, स्वयंसिद्धा, विषकन्या, रति विलाप, आकाश
कहानी संग्रह : शिवानी की श्रेष्ठ कहानियाँ, शिवानी की मशहूर कहानियाँ, झरोखा, मृण्माला की हँसी
संस्मरण : अमादेर शांति निकेतन, समृति कलश, वातायन, जालक
यात्रा वृतांत : चरैवैति, यात्रिक
आत्मकथा : सुनहुँ तात यह अकथ कहानी

1982 में शिवानी जी को पद्मश्री से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार, लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। 21 मार्च, 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

उनकी प्रसिद्ध कहानी "दंड" के कुछ अंश :-

                       #दंड#


सिंह नर्सिंग होम में बड़ा-सा ताला लटक रहा था। लोकप्रिय डॉ. सिंह के अकस्मात् इस तरह अलोप हो जाने पर, उनके कई मरीजों की अवस्था और बिगड़ गई थी। अब क्या होगा ? अपने हाथों का चमत्कार दिया, उन्हें मृत्युंजयी औषधि पिलानेवाला मसीहा ऐसे अदृश्य क्यों हो गया ? यह ठीक था कि कई दिनों से डॉ. सिंह ने अपने क्लीनिक में किसी भी नए मरीज को नहीं लिया था, फिर भी निराश मरीजों के असहाय आत्मीयों की एक लम्बी कतार, उनके सेक्रेटरी के चरणों पर सिर रखकर गिड़गिड़ाती रही थी। जैसे भी हो, एक बार डॉ. सिंह उनके मरीजों को देख-भर लें, पर सेक्रेटरी बेचारा क्या करता ? डॉ. साहब अपनी सजी कोठी के सबसे ऊपर के कमरे में स्कॉच लेकर बन्द थे। किसकी मजाल थी कि द्वार खटखटा दे। बीच-बीच में उनका गूँगा नौकर बदलू, काली तेज़ कॉफी की ट्रे वहीं पहुँचाता रहता। ‘साहब क्या कर रहे हैं ?...‘कैसा मूड है ?’-‘बैठे हैं या लेटे हैं ?’...किसी भी प्रश्न का उत्तर गूँगा नहीं दे पाता तो डॉक्टर सिंह का सेक्रेटरी सुशील रॉय झुँझला उठता। ........वह समझ गया कि लौहद्वार अब किसी मिलनेवाले के लिए नहीं खुलेगा। पर दूसरे दिन आधी रात में कुछ पलों तक द्वार खुला था। नर्सिंग होम के जिस वी.आई.पी. मरीज को दूसरे दिन छुट्टी मिलनेवाली थी, उसे अचानक दिल का दूसरा दौरा पड़ गया। डरते-डरते डॉक्टर रॉय ने द्वार खटखटाया। न खटखटाता और इसी बीच मरीज को कुछ जाता तो शायद सिंह नर्सिंग होम की नींव ही हिल जाती। मरीज किसी जनसंघी मन्त्री का साला था, एकदम टाइम बम, कब घातक रूप से फट पड़े, ठीक नहीं ! देखभाल करने को साथ में निरन्तर बनी रहती उनकी समाज-सेविका साली। उसी ने डॉक्टर सुशील को एक प्रकार से कन्धा पकड़कर सीढ़ियों पर धकेल दिया था।

‘‘जैसे भी हो, डॉक्टर सिंह को नीचे खींच ले आओ। नहीं आएँ तो उनके हक में ठीक नहीं होगा। मरीज को जब यहाँ लाए हैं, तब उनके जीवन की जिम्मेदारी भी वहन करनी होगी...’’


डॉक्टर सुशील ने शायद घबराकर द्वार कुछ जोर से ही भड़भड़ा दिए थे, ‘‘सर, मन्त्रीजी के साले की हालत बहुत ख़राब है, एक बार चलकर देख लिया जाए...’’
‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा मन्त्री का साला।’’ सौ दानव कंठ एकसाथ गरज उठे थे।
पर फिर कुछ सोचकर उन्होंने स्वयं ही द्वार खोल दिया।

प्रभु का स्याह चेहरा देखकर सुशील सहम गया था। लगता था, कई दिनों से कमरे में स्वेच्छा से बन्दी बने डॉक्टर सिंह ने शरीर पर मनमाना अत्याचार किया है। अव्यक्त व्यथा से चेहरा झुलसकर एकदम काला पड़ गया था। जिसे अपने दस वर्ष के साहचर्यकाल में एक बार भी बिना दाढ़ी बनाए नहीं देखा था.........
मरीज की अवस्था सचमुच ही शोचनीय थी। पर डॉक्टर सिंह उसे देखते ही एक बार फिर पुराने डॉक्टर सिंह हो गए। मरीज की शोचनीय अवस्था ही तो उन्हें पुलकित कर उठती थी। ....
‘‘ऑक्सीजन प्लांट लाओ...फलाँ इंजैक्शन, फलाँ दवा...’’

‘‘आप यहाँ क्या कर रही हैं ? जाइए बाहर।’’ उन्होंने हो-हल्ला मचाती मरीज की तेजस्वी साली को ऐसे डपट दिया, जैसे वह स्कूल की बच्ची हो।मरीज के कमरे में आत्मीय स्वजनों की भीड़ देखकर वह तुनकमिजाज डॉक्टर ऐसे ही भड़क जाता था। रात-भर वह मरीज की छाती पर अपने हाथों से ऐसे मालिश करता रहा, जैसे कोई स्नेही घोसी अपनी भैंस को रगड़-रगड़कर नहला रहा हो। पौ फटी तो मृत्यु-द्वार से प्रत्यावर्ती रोगी चैन की नींद सो रहा था। ....धन्यवाद देती, इससे पहले ही वह रूखा डॉक्टर धड़धड़ाता अपने कमरे में चला गया था और उसने कुंडी चढ़ा ली थी। विधि की भी कैसी विचित्र विडम्बना थी कि सहस्त्रों मुर्दों में ऐसी जान फूँक देनेवाला यह अनोखा जादूगर आठ दिन पूर्व हाथ बाँधे खड़ा देखता ही रह गया था। और बलवती मृत्यु अपनी शत-सहस्त्र पराजयों का एक ही आघात में प्रतिशोध ले, उसे अँगूठा दिखाकर चली गई थी।

फ्रिज में धरे तरबूज के लुभावने रक्तिम अन्तस्तल में छिपी घातक कुटिल मृत्यु मुस्करा रही है, यह तब पिता-पुत्र क्या जानते थे ? तरबूज की एक फाँक तो पिता ने भी खाई थी, फिर मृत्यु पुत्र को ही क्यों ले गई ? पिता और पुत्र भी क्या ऐसे वैसे थे ? दोनों साथ-साथ खड़े होते तो लगता कि दो जुड़वाँ भाई खड़े हैं। डॉक्टर सिंह पचास से कुछ ऊपर ही थे, पर चाहने पर अब भी सेहरा बाँध सकते थे। न एक बाल सफेद, न एक झुर्री। 
..........
मृत पत्नी का बड़ा-सा तैलचित्र उनके विजिटिंग रूम में टँगा रहता। कुछ दिनों पूर्व उनका एक प्रतिभाशाली मरीज अपनी समस्त कृतज्ञता डॉक्टर-पत्नी की एक विराट् ताम्र मूर्ति में ढालकर उन्हें उपहार दे गया था। कैसी तेजस्वी महिला रही होंगी वह ! ताम्रतेज से घुल-मिल गया अद्वितीय गढ़न के चेहरे का गम्भीर तेज आँखों को बरबस बाँध लेता था।.....पच्चीस वर्ष की अल्पावस्था में ही डॉक्टर-पत्नी की अकाल मृत्यु का कारण बना था असाध्य ब्रेस्ट कैंसर।
फिर उन्होंने पिता के लाख कहने पर भी विवाह नहीं किया।

अपनी अधूरी डॉक्टरी पूरी कर वह कुछ दिनों विदेश में ही बसे रहे, फिर स्वदेश लौट आए। ताल्लुकेदारी बेचकर दिल्ली में ही उन्होंने अपना क्लिनिक खोल लिया था। पुत्र विदेश में ही पिता के पेशे की शिक्षा ग्रहण कर रहा था। पिछले ही वर्ष वह आश्चर्यजनक रूप से छोटी अवस्था में एस.आर.सी.एस. कर लौटा, और अनायास ही पिता की दक्षिण भुजा बन गया। पुत्र-प्रेम के लिए जिस अर्द्धागिनी के विरह की कफनी उन्होंने स्वेच्छा से ही ओढ़ ली थी, उस त्याग का पुरस्कार दे दिया स्वयं पुत्र ने। पिता लाखों में एक सर्जन था तो पुत्र लाखों में एक चिकित्सक। पिता वामहस्त से भी कठिन ट्यूमर चीरकर ऐसे रख देता, जैसे सुगृहिमी सधे हाथों से अचार का नींबू चीरती है, और पुत्र उसी अनुभव के अन्दाज से औषधि के मसाले भर देता। फिर वर्षों तक शरीर के पारदर्शी काँच के-से बोयाम में भरे उस स्वरचित प्रिजर्व को पिता-पुत्र बड़े गर्व से देखते। अब वर्षों तक उसके सड़ने-गलने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था।

पर कभी-कभी नाम की भी कैसी व्यर्थ मरीचिका बनकर रह जाती है ! डॉक्टर सिंह के श्वसुर थे, रसिक कवि, अवध के सुप्रसिद्ध ताल्लुकेदार। उन्होंने नाती का नाम धरा था मृत्युंजय। पर मृत्यु को नहीं जीत सका बेचारा ! मृत्यु ने ही उसे जीत लिया।
........ 
पर पिता की समस्त दुर्बलताओं को जानने पर भी वह स्नेही पुत्र पिता से एक क्षण भी विलग नहीं हो पाता था। शॉयलॉक-सा क्रूर पिता, मरीज के प्राण जाने से पूर्व भी अपनी ऊँची फीस का बीमा करवा लेता है, यह मृत्युंजय से छिपा न था। पिता की आसव से आसक्ति, नारी-लोलुप चटोरी जिह्ना, कुछ भी उससे लुका-छुपा नहीं था, पर फिर भी स्वेच्छा से अनजान बना, वह डॉक्टर सिंह के समस्त दुर्गुणों को काला परदा डालकर ढाँप देता। पुत्र के इसी क्षमाशील व्यक्तित्व को देखकर पिता ने सन्तोष की साँस ली थी, पर ठीक तीसरे महीने ही वर्षों से मित्र बना पुत्र अचानक शत्रु बनकर कलेजे में खंजर भोंक देगा, वह क्या जानते थे ? पलक झपकते ही सबकुछ हो गया था। दो उल्टियाँ, दो-तीन और नैन-पुतलियाँ उलट गई थीं। केवल एक बार अरथी पर अबोध शिशु की भाँति पछाड़ खाकर डॉक्टर सिंह ने पूछा था, ‘यह मुझे कैसा दंड दे दिया प्रभो ?’ कुछ ही क्षणों को वह लौहपुरुष टूट गया था, फिर भागकर उन्होंने कमरा बन्द कर लिया था।



अरथी कौन ले गया, किसने कन्धा दिया, किसने मुखाग्नि दी ? उन्हें कुछ पता नहीं रहा।
............ फिर भी रात-भर जागकर उसने कई बार रटकर वे वाक्य कंठ में साधे थे, जो वह डॉक्टर सिंह से कहेगा, जैसे भी होगा, वह उन्हें आज क्लीनिक में खींच ही लाएगा। वह जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि गूँगा बदलू डॉक्टर सिंह का पत्र थमा गया :
‘सुशील,
लम्बी छुट्टी पर जा रहा हूँ-शायद लौटूँ और शायद नहीं। सारा एकाउंट और क्लीनिक तुम्हें सौंप गया हूँ, जी में आए तो चलाना और जी में आए तो ताला डाल देना।

 
तुम्हारा
डॉ. सिंह,

 




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