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कफ़न : सामाजिक विद्रूपता की कहानी

         कफ़न कथाक ार मु ंशी प्रेमचंद की सर्वश्र ेष्ठ कहानियों में से एक है , जिसका प्रकाशन चाँद पत्रिका के अप्रैल 1936 के अंक में हुआ था। सामाजिक विद्रूपता को दर्शाती यह कहानी अति निम्न मजदूर वर्ग की यथार्थ स्थिति की व्याख्या करता है।यह ऐसी सामाजिक व्यवस्था की कहानी है जहां श्रमिक कठिन परिश्रम तो करता है किन्तु उसके हाथ कुछ नहीं आता।वह पूंजीपतियों के शोषण का शिकार हो कर अत्यंत निम्न दशा में जीवन यापन करता है जहां अन्तत: वह अकर्मण्य हो जाता है और उसकी सारी संवेदनशीलता समाप्त हो जाती है। जो बुधिया घास छीलकर और मजदूरी करके दोनों का भरण पोषण करती है उसी के मरणासन्न होने पर दोनों इतने संवेदनहीन हो जाते हैं कि  दोनों इन्तजार करते हैं  बुधिया मर जाए तो वह आराम से सोएं। आग में भूनते आलू  बुधिया की जान से ज्यादा कीमती है। दोनों में से कोई बुधिया को देखने झोपड़ी के अंदर नहीं जाना चाहता क्योंकि अगर एक चला गया तो दूसरा उन आलूओं को खा जाएगा ।                  कहानी के प्रारंभ में ही यह दृश्य अत्यंत हृदयविदारक है।जो पाठकों की संवेदनशीलता को अनायास ही अपनी ओर खींचता है। प्रेमचंद जी ने कहानी में स

तोड़ती पत्थर : निराला जी की प्रगतिवादी कविता

        तोड़ती पत्थर कविता हिन्दी काव्य जगत के मूर्धन्य कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की सन् 1935 ई. में लिखी गई एक प्रगतिवादी कविता है। यद्यपि निराला जी छायावाद के प्रतिनिधि कवि थे  तथापि उन्होंने छायावाद की रोमानियत से बाहर निकल कर यथार्थ को देखा और युगानुरुप प्रगतिवादी रचनाएं करनी प्रारम्भ कर दी। निर्धन, दुःखी, शोषित मजदूर प्रगतिवादी काव्य के मेरुदंड है। शोषित और सर्वहारा वर्ग का यथार्थ चित्रण ही प्रगतिवादी काव्य की मूल प्रवृत्ति रही है।            तोड़ती पत्थर कविता भी इसी तरह की कविता है। इसमेें निराला जी ने इलाहाबाद के पथ पर भरी दोपहरी में पत्थर तोड़ने वाली मजदूरनी का यथार्थ चित्रण किया है।यह चित्रण अत्यंत मर्मस्पर्शी है। मजदूरनी चिलचिलाती धूप में बैठी अपने हथौड़े से पत्थर पर प्रहार कर रही है। जिस धूप में कोई घर से बाहर नहीं निकलना चाहता उसी धूप में वह हथौड़े से बार - बार प्रहार करके पत्थर तोड़ रही है। वहां किसी प्रकार की कोई छाया नहीं है।और न ही कोई छायादार वृक्ष है जहां थोड़ी देर बैठकर वह आराम कर ले। ऐसे वातावरण में वह बिना किसी से कुछ बोले अपने कर्म में तत्पर है।वह कितनी विवश

जयशंकर प्रसाद और उनका काव्य संसार

      जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक कवि थे।इनका जन्म सन् 1889 में काशी के सुंघनी साहू परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवीप्रसाद खत्री था। बचपन में ही इन्होंने पहले माता फिर पिता और 17 साल की आयु में बड़े भाई के मृत्यु का दुःख झेला है। जिससे इनकी स्कूली शिक्षा छूट गई। परन्तु इन्होंने स्वाध्याय से ही हिन्दी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।इसी बीच इनकी एक के बाद दूसरी पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया। जीवन की इन दुखद घटनाओं की गूंज इनकी कविता में भी सुनी जा सकती है । जीवन में कठिन से कठिन परिस्थितियों को झेलते हुए भी इन्होंने उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त किया।और हिन्दी साहित्य को अपने ज्ञान के भंडार से समृद्ध किया। इन्होंने गीतिकाव्य , खण्डकाव्य और महाकाव्य की रचना की।कानन कुसुम , झरना और लहर इनका गीति काव्य है।प्रेमपथिक , महाराणा का महत्व और आंसू खण्ड काव्य है तथा कामायनी महाकाव्य है।      जयशंकर प्रसाद जी जब नौ वर्ष के थे तभी इन्होंने अपने गुरु रसमय सिद्ध को 'कलाधर ' उपनाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया था। आगे चलकर 1906 ई. में  

सवा सेर गेहूं: कभी न चुकने वाले कर्ज की गाथा

" सवा सेर गेहूं " कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई यथार्थ घटना पर आधारित कहानी है।इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद जी ने उस समय की सामाजिक दशा का यथार्थ चित्रण किया है। प्रेमचंद जी ने इस कहानी के माध्यम से एक शोषित वंचित किसान की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है।यह शंकर नामक एक सीधे सादे , भोले भाले किसान की कहानी है। जिसे धोखे से कर्ज के जाल में फंसा दिया जाता है। शंकर एक गरीब किसान है। उसने कभी किसी का बुरा नहीं किया। खुद तो रूखा सूखा जो होता खा लेता। नहीं होता तो पानी पी के सो रहता । परन्तु यदि द्वार पर कोई साधु महात्मा आ जाते तो उन्हें उनकी मर्यादा के अनुसार भरपेट भोजन कराता। कभी कोई उसके द्वार से खाली नहीं लौटा। लेकिन फिर भी नियति ने उसे नहीं बख्शा।एक दिन उसके द्वार पर एक साधु महात्मा आएं। उनके भोजन के लिए उसने गांव के विप्र महाराज से सवा सेर गेहूं उधार लिया। साधु महाराज तो भरपेट भोजन करके और आशीर्वाद देकर चले गये। लेकिन शंकर के सिर गेहूं का कर्ज चढ़ा गये। यह कर्ज ही शंकर के गले का फांस बन गया । शंकर विप्र महाराज को हर साल खलिहानी देते समय सेर दो सेर अनाज