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जायसी के पद्मावत में लोकतत्व और भारतीय संस्कृति

पद्मावत में लोकतत्व और भारतीय संस्कृति मंजू चौरसिया लोकतत्व से आशय जन साधारण की मान्यताओं से है। यदि किसी देश की संस्कृति का वास्तविक रूप देखना हो तो वहाँ के लोक जीवन को देख लेना चाहिए क्योंकि लोक जीवन में व्याप्त विभिन्न मान्यताएँ, विभिन्न पर्वों एवं उत्सवों के रीति-रिवाज अतीत की किसी गौरवमयी वास्तविकता की ओर संकेत करते हैं। अहोई अष्टमी और करवा चौथ के पर्वों पर स्त्रियों द्वारा विशिष्ट देवियों की आकृतियाँ गृह-भित्ति पर चित्रित करने की प्रथा उत्तरी भारत में सर्वत्र देखने को मिलती है इसका धार्मिक और पौराणिक महत्व चाहे कुछ भी हो, किन्तु ललित कलाओं के प्रति भारतीय अभिरूचि के उत्सुकता का यह स्पष्ट निदर्शन है। लोक जीवन में स्त्रियों द्वारा बनाई गई चित्रकला तथा देवताओं की मूर्तियों से यह विदित होता है कि यथार्थ संस्कृति हमारे ग्रामीण जीवन में ही है। प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा में लोक कथाओं के माध्यम से ही अलौकिक प्रेम की व्यंजना का विधान किया गया है। प्रेमाख्यानक कवियों ने भारतीय समाज और संस्कृति से सम्बद्ध कथाओं को अपने काव्यों में आधार रूप से प्रयुक्त किया है। जायसी का पद्मावत भी लोक जी

सूरदास की भक्ति भावना

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सूरदास के काव्य में निहित भक्ति का स्वरूप                                           (स्रोतः इन्टरनेट)              हिन्दी साहित्याकाश में सगुणोपासक कृष्ण भक्त कवियों की परम्परा में सूरदास का स्थान अनन्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- ‘‘जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार कृष्ण चरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का। वास्तव में ये हिन्दी काव्य गगन के सूर्य और चन्द्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्त शिरोमणि कवियों की वाणी में पायी जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है कि- ‘‘उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बलवीर। केशव अर्थ गंभीर को, सूर तीन गुन धीर ।।’’ इसी प्रकार सूरदास की प्रशस्ति में किसी कवि ने यह भी कहा है कि-  ‘‘किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर। किधौं सूर को पद लग्यों, बेध्यो सकल सरीर ।।’’ सूरदास बल्लभाचार्य के शि