जायसी के पद्मावत में लोकतत्व और भारतीय संस्कृति

पद्मावत में लोकतत्व और भारतीय संस्कृति
मंजू चौरसिया

लोकतत्व से आशय जन साधारण की मान्यताओं से है। यदि किसी देश की संस्कृति का वास्तविक रूप देखना हो तो वहाँ के लोक जीवन को देख लेना चाहिए क्योंकि लोक जीवन में व्याप्त विभिन्न मान्यताएँ, विभिन्न पर्वों एवं उत्सवों के रीति-रिवाज अतीत की किसी गौरवमयी वास्तविकता की ओर संकेत करते हैं। अहोई अष्टमी और करवा चौथ के पर्वों पर स्त्रियों द्वारा विशिष्ट देवियों की आकृतियाँ गृह-भित्ति पर चित्रित करने की प्रथा उत्तरी भारत में सर्वत्र देखने को मिलती है इसका धार्मिक और पौराणिक महत्व चाहे कुछ भी हो, किन्तु ललित कलाओं के प्रति भारतीय अभिरूचि के उत्सुकता का यह स्पष्ट निदर्शन है। लोक जीवन में स्त्रियों द्वारा बनाई गई चित्रकला तथा देवताओं की मूर्तियों से यह विदित होता है कि यथार्थ संस्कृति हमारे ग्रामीण जीवन में ही है।
प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा में लोक कथाओं के माध्यम से ही अलौकिक प्रेम की व्यंजना का विधान किया गया है। प्रेमाख्यानक कवियों ने भारतीय समाज और संस्कृति से सम्बद्ध कथाओं को अपने काव्यों में आधार रूप से प्रयुक्त किया है। जायसी का पद्मावत भी लोक जीवन से सम्बद्ध होकर ही हमारे सामने आया है। जायसी ने हिन्दू जीवन को निकट से जाना, समझा था। यही कारण है कि पद्मावत एक प्रेमाख्यान होते हुए भी सामाजिक और पारिवारिक जीवन के चित्रों से भरा पड़ा है। उसमें तत्कालीन समाज में प्रचलित जीवन शैली विभिन्न रीति-रिवाज, परम्पराएँ, लोकाचार, रूढि़याँ, व्रत त्यौहार आदि का वर्णन यत्र तत्र देखने को मिलता है।
पद्मावत में लोकतत्व कितना है किस रूप में है? इसे पद्मावत में आयी हुई लोक कथाओं, भारतीय लोकाचार, भारतीय तीर्थ स्थानों और भारतीय देवी-देवताओं के चित्रण के माध्यम से समझा जा सकता है। जायसी भारतवर्ष के जन जीवन में व्याप्त विविध लोक कथाओं से भली-भाँति परिचित थे और वे इन लोक कथाओं के महत्व को भी जानते थे, इनके सांस्कृतिक महत्त्व को भी पहचानते थे। यही कारण है कि पद्मावत में स्थान-स्थान पर भारतीय लोक कथाओं के सन्दर्भ और उद्धरण देखने को मिलते हैं। स्पष्टतः पद्मावत में रामायण की कथा के विविध प्रसंग स्थान-स्थान पर आये हैं तो महाभारत की विविध कथाओं से भी कितने सन्दर्भ लिये गये हैं। उदाहरण के लिए
‘‘दान करन दै दुई जग तरा।’’
कहकर उन्होंने कर्ण के दान एवं त्याग की ओर संकेत किया है तो ‘‘राहु बेधि होई अरजुन जीति द्रौपदी ब्याहु’’ कहकर कवि ने अर्जुन द्वारा मत्स्य बेध कर द्रौपदी के साथ विवाह करने की कथा का उल्लेख किया है।
‘‘धरती पाय सरग सिर, जानहुँ सहसराबाहु’’
कहकर सहस्रबाहु अर्जुन की कथा की ओर संकेत किया है। इस प्रकार जायसी ने शकुन्तला और दुष्यन्त की कथा भी महाभारत से लेकर वर्णित किया है। इसी तरह लोक प्रचलित भागवत पुराण में वर्णित अनेक कथाएँ पद्मावत में देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक ऐसी भारतीय लोक कथाएँ भी पद्मावत में वर्णित है जो भारतीय जन जीवन से गहराई से जुड़ी हुई है। जैसे राजा भोज की कथा, राजा विक्रमादित्य की कथा, लोना चमारी की कथा, गोरख और मछन्दर की कथा आदि इसके प्रमाण है। पद्मावत में इन सभी का प्रसंगानुसार वर्णन हुआ है।
जायसी ने हिन्दू समाज में प्रचलित अनेक रीति-रिवाज एवं लोकाचार को भी लोक जीवन से ग्रहण किया है। पद्मावती के जन्म पर नामकरण व षष्ठी देवी पूजन के समय के लोकाचार दर्शनीय है-

‘‘भै छठि राति छठि सुख मानी।
रहस कूद सौरैनि बिहानी ।।
भा बिहान पंडित सब आए ।
काढि पुरान जनम अरथाए ।।’’


बसंत पंचमी की पूजा के सम्बन्ध में उन्होंने उल्लेख किया है कि-

‘‘हरियर भूम्मि कुसुंभी चोला।
औ पिय संगम रचा हिंडोला ।।’’


बसंत पंचमी आते ही पद्मावती सखियों के साथ सजधजकर शिव मण्डप में गौरी व शिव की पूजा करने जाती है। सखियों ने विविध प्रकार के फल-फूल शिव पार्वती पर चढ़ाने के लिए चुने है। वे सभी खेलती-कूदती हुई शिव मण्डप में पहुँचती है और जब वे वहाँ पहुँचती है तब विविध प्रकार के वाद्य बजते हैं। पद्मावती के विवाह वर्णन के समय तो लोकाचारों एवं रीति रिवाजों की भरमार है। विवाह की तैयारी, निमन्त्रण सम्प्रेषण, सारे राजमहल में आनन्दोत्सव, भूमि पर बिछाई जाने वाली लाल बिछावन, चन्दन के खम्भों की पंक्तियाँ और मणियों के दीपक आदि को प्रज्ज्वलित करना भी वर्णित किया गया है। बारात के राजमहल के समीप पहुँचते ही सखियों के साथ पद्मावती का भी वर देखने जाना, भाँवर पड़ना, बारातियों का विविध प्रकार के व्यंजनों से स्वागत-सत्कार, कन्या की बिदाई इत्यादि भी पद्मावत में वर्णित हुए है। इन सबके अतिरिक्त हिन्दू परिवार की संयुक्त परिवार प्रथा पति-पत्नी का अटूट सम्बन्ध, पति की मरणाशंका पर जौहर व्रत आदि का भी वर्णन जायसी ने किया है।
जायसी भारतीय समाज में व्याप्त विविध विचारों से भी भली-भाँति परिचित थे। धन का महत्त्व, दान का महत्त्व, कर्म फल में विश्वास संसार को मिथ्या मानना, सत्य, प्रेम, दया, करूणा जैसे मानवीय मूल्यों का जीवन में महत्व इत्यादि सब बाते उनके काव्य में सामाजिक लोकाचार के रूप में चित्रित है। लोक में व्याप्त धार्मिक जीवन से भी जायसी भली-भाँति परिचित थे। हिन्दूओं के देवी-देवताओं की साज-सज्जा तक का उन्हे ज्ञान था-

‘‘ततखन पहुँचा आई महेसू। वाहन बैल कुस्टि कर भेसू।।
सेसनाग औ कंठ माला। तन भभूति हस्ती कर छाला।।’’


जायसी ने तत्कालीन समाज में व्याप्त जप, तप, साधना, हठयोग की पद्धति का भी वर्णन किया है। पाँचों कलाओं के साथ-साथ वाणिज्य, गणित, ज्योतिष, रसायन शास्त्र, वनस्पति विज्ञान, जन्तु विज्ञान, आयुर्वेद इत्यादि का भी वर्णन पद्मावती में किया गया है।
इन सबके अतिरिक्त जायसी ने भारतीय तीर्थ स्थानों और उनके महात्म्य का भी वर्णन किया है। उन्होंने तीर्थराज प्रयाग, काशी, अयोध्या, जगन्नाथपुरी, सेतुबंध रामेषश्वरम्, मथुरा-वृन्दावन, द्वारिकापुरी, केदारनाथ आदि का प्रभावपूर्ण वर्णन किया है-

‘‘जाइ केदार दाग तन कीन्हेउ, तॅह न मिलावन ऑकि।
ढूढि अजोध्या सब फिरऊँ, सरग दुआरी झॉकि ।।’’


भारतीय देवी-देवताओं इन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती, यक्षिणी आदि समेत तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की लोकव्याप्त अवधारणाओं का भी इन्होंने उल्लेख किया है-

‘‘तैंतीस कोटि देवता साजा। औ छयानवे मेघ दर गाजा।।
छप्पन कोटि बैसेदर बरा। सवा लाख परवत फरहरा।।’’


इसके अलावा ईश्वर की सर्व व्यापकता, सत्य और दान का महत्व, दूसरों की भलाई, योग से सिद्धि प्राप्ति, तपस्या से अभीष्ट फल की प्राप्ति, गुरू के प्रति अनन्य श्रद्धा, अदृश्य शक्ति में विश्वास आदि का जायसी ने पूरी तन्मयता से वर्णन किया है। वे मुसलमान होने पर भी हिन्दुओं के रीति-रिवाज, मान्यताओं और देवी-देवताओं से भली-भॉति परिचित थे। इसलिए पद्मावत में लोकतत्व का इतना सटीक वर्णन प्रस्तुत कर सके।

अब पद्मावत में अभिव्यक्त भारतीय संस्कृति की तरफ दृष्टि डाले तो हम देखेंगे कि पद्मावत भारतीय संस्कृति का अद्भुत महाकाव्य है। इसमें जायसी ने भारत के जन जीवन में व्याप्त सांस्कृतिक मान्यताओं और धारणाओं का निरूपण तो किया ही है साथ ही उन मूल्यों का भी चित्रण किया है जो भारतीय जीवन की श्रेष्ठता और उच्चता की परिचायक है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। भारतीय संस्कृति प्रचण्ड तूफानों में भी अपनी गरिमा की पताका फहराती रही है। जायसी के समय युगीन परिस्थितियाँ अत्यन्त विषम थीं। भारतीय संस्कृति के प्रतीक अनेकानेक कलात्मक कृत्तियों के भण्डार हिन्दुओं के मन्दिर, भवन इत्यादि बाह्य आक्रमणकारियों द्वारा तोड़े जा रहे थे, परन्तु जन साधारण के मन में परम्परागत रूप से विद्यमान सांस्कृतिक मूल्य, नैतिक धारणा, सौन्दर्योपसक दृष्टि, मानव मात्र के प्रति मैत्रीभाव, सामाजिक जीवन के प्रति आस्था, सहिष्णुता समन्वयवादी भाव आदि को नष्ट करना सरल कार्य नही था। जायसी ने इसी भाव को अपनाकर पद्मावत में भारतीय परम्परा आचार-विचार मूलक संस्कृति इत्यादि को अपना कर सजीव चित्रण प्रस्तृत किया है। वास्तव में पद्मावत अपने युग का प्रेमाख्यानक मात्र नहीं है। इसमें सांस्कृतिक इतिहास की भी निष्छल अभिव्यक्ति हुई है। भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत यह विश्वास बहुत ही गहराई से व्याप्त है कि ईश्वर सर्वव्यापक है। वह घट-घट में समाया हुआ है। जायसी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि-
‘‘परगट गुपुत सो सरब बियापी।’’

भारतीय जन जीवन में सत्य को भी विशेष महत्त्व दिया गया है। सम्भवतः इसी तथ्य को प्रमाणित करते हुए। जाससी ने भी स्थान-स्थान पर यह उल्लेख किया है कि जहाँ सत्य है वहीं पर धर्म साथी होता है। यह सृष्टि सत्य द्वारा बँधी हुई है। लक्ष्मी भी सत्य की दासी होती है और जहाँ सत्य होता है, वहाँ साहस से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। सत्यवादी लोग ही सत्य पुरूष कहलाते हैं और सत्य की रक्षा के निमित्त ही सती स्त्रियाँ चिता पर चढ़ती है। जो सत्य की रक्षा करता है वह दोनों लोको से तर जाता है। इसी तरह भारतीय संस्कृति में दान को भी विशेष महत्व दिया गया है। जायसी ने भी पद्मावत में दान के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि दान के समान संसार में कुछ भी नहीं है। यहाँ तो एक देने से दस गुना लाभ होता है। दानी धर्मात्मा का मुख सभी देखना चाहते हैं और दानी दोनों लोको में काम आता है। यहाँ जो दान दिया जाता है वह वहाँ परलोक में मिल जाता है और यदि कोई दान नहीं देता है तो उसका धन चोर चुरा ले जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार मनुष्य को सदैव उच्च विचार रखने चाहिए। उच्चता का ही महत्व होता है। इसी दृष्टिकोण से प्रभावित होकर जायसी ने जीवन में उच्च पद पाने और उन्नत स्थिति प्राप्त करने की ओर संकेत करते हुए कहा है कि- ‘‘मानव को सदैव ऊँचा बनने का प्रयास करना चाहिए, ऊँचा साहस करना चाहिए, दिन प्रतिदिन ऊँचाई की ओर ही पैर बढ़ाना चाहिए और उच्च विचार वाले पुरूषों का सत्संग करना चाहिए।" इस प्रकार उच्चता का महत्व प्रतिपादित किया गया है। भारतीय संस्कृति में धन की बड़ी निन्दा की गयी है, क्योंकि इसके कारण ही मनुष्य पतन के गर्त में जा गिरता है। पद्मावत में जायसी ने कहा कि धन से अहंकार उत्पन्न होता है और लोभ बढ़ जाता है। यह लोभ विष की जड़ है। लोभ के आते ही मनुष्य में दान की प्रवृत्ति नहीं रहती और वह सत्य से बहुत दूर चला जाता है। दान और सत्य तो भाई-भाई है। इसलिए मनुष्य को हर प्रकार के लोभ और अहंकार से दूर रहना चाहिए।
भारतीय संस्कृति में नारी को पर्याप्त महत्व दिया गया है। नारी की पति परायणता का भी गुणगान किया गया है। जायसी ने पद्मावत में नारी की महत्ता को स्वीकार किया है। और उन्होंने पतिपरायणा नारी के रूप में पद्मावती और नागमती का चित्र भी प्रस्तुत किया है। पद्मावती और नागमती दोनों ही पति परायणा नारी है और पति को ही अपना जीवन धन समझती है।
भारतीय संस्कृति में तो बुरे व्यक्ति के प्रति भी भलाई करने का प्रावधान है। जायसी ने भी यही बात कही है कि जब गोरा और बादल बादशाह अलाउद्दीन के साथ छल-कपट का व्यवहार करने के लिए राजा रतनसेन को सलाह देते है तो रतनसेन को उनकी यह सलाह अच्छी नहीं लगती है। वह फिर भी यही कहते है कि-

‘‘जहाँ मेरू तहँ अस नहिं भाई।’’

अर्थात् हे भाई, जहाँ मेल है वहाँ ऐसा नहीं होता है। वह फिर कहता है कि-

‘‘मंदहि भल जो करै भलु सोई, अंतहु भला भले कर होई।।’’

अर्थात शठ के साथ जो भला करे, वही भला है क्योंकि अन्त में भले का ही भला होता है। जो शत्रु विष देकर मारना चाहे, उसे अपनी ओर से विष नहीं देना चाहिए। यही भारतीय संस्कृति है।
भारतीय संस्कृति में तपस्या को विशेष महत्व दिया गया है और यह बताया है कि तपस्या के द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकता है। वास्तव में भारतीय जीवन में तपस्या को एक सांस्कृतिक मूल्य के रूप में देखा गया है। भारतीय जन जीवन में देवोपासना के प्रति गहरी आस्था व्यक्त की गयी है। पद्मावती बसन्त पंचमी के शुभ अवसर पर महादेव जी का पूजा करने जाती है। अपने आराध्य देव के चरणों में गिरकर प्रार्थना करती है। इस पूजा-अर्चना के परिणाम स्वरूप उसे शीघ्र ही रतनसेन के आगमन का शुभ समाचार मिल जाता है। भारतीय संस्कृति में यह विश्वास पर्याप्त महत्वपूर्ण रहा है कि इस सृष्टि में कहीं न कहीं कोई अदृश्य शक्ति अवश्य है। उस अदृश्य शक्ति में विश्वास करना आवश्यक है। जायसी ने इसी आधार पर लिखा है कि जब राजा रतनसेन अपने दलबल के साथ सिंहल द्वीप से चलकर चित्तौड़ को जाने लगे, तब राजा के आने का समाचार रानी नागमती को किसी अदृश्य शक्ति द्वारा अनायास ही प्राप्त हो जाता है। परिणाम स्वरूप उसकी विरहजनित तपन जाती रही और उसके जीवन में वर्षा ऋतृ आ जाती है। भारतीय संस्कृति में उस विराट परम सत्ता को सर्वत्र व्याप्त और सर्वत्र विद्यमान माना गया है। जब कभी भी उस परम सत्ता के निवास की चर्चा हुई है तब उसके निवास को अलौकिक निवास कहा गया है। जायसी ने भी अपने पद्मावत में उस परम सत्ता के निवास को अलौकिक स्थान कहकर चित्रित किया है।
भारतीय संस्कृति में गुरू को सर्वोपरि माना गया है और उसे ईश्वर से भी महान बताया गया है। इसी आधार पर जायसी ने भी गुरू के महत्व को प्रतिपादित किया है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि पद्मावत में भारतीय संस्कृति के अनेक तत्व देखने को मिलते हैं। और साथ ही साथ विविध सांस्कृतिक मूल्यों का महत्व भी प्रतिपादित किया गया है। सही अर्थों में जायसी भारतीय जनमानस और भारतीय जन जीवन में व्याप्त उन सभी स्थितियों से परिचित थे जिनका सम्बन्ध हमारी भारतीय संस्कृति और लोक जीवन से था। इस प्रकार पद्मावत एक प्रेमाख्यान होते हुए भी भारतीय लोकतत्व एवं भारतीय संस्कृति से अभिसिंचित महाकाव्य है। जायसी ने इस काव्य में लोक तत्व और भारतीय संस्कृति का समावेश करके न केवल इस महाकाव्य को अन्यतम रूप दिया है बल्कि अपने उच्च विचार और सांस्कृतिक समन्वयकारी दृष्टि का भी परिचय दिया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ-
हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
पद्मावत- मलिक मोहम्मद जायसी
हिन्दी साहित्य का प्रवृत्तिमूलक अभिनव इतिहास- डॉ0 विवेक शंकर और श्रीमती उर्मिला साध
यू0जी0सी0 नेट- डॉ0 हरिचरण शर्मा

टिप्पणियाँ

  1. नमस्कार आपका लेख बहुत अच्छा लगा.. Apse kaise संपर्क करें mam मैं हिंदी साहित्य की छात्रा हूँ प्रथम वर्ष आपके मार्गर्शन की अभिलाषी हूँ | कृपया बताएं mam 🙏🏻

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