प्रयोगवाद और अज्ञेय

               हिन्दी साहित्य में प्रयोग वाद का प्रारम्भ सन् 1943 ई. में अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार सप्तक के प्रकाशन के साथ माना जाता है। वास्तव में इसका प्रारंभ छायावाद में निराला जी के काव्य में ही हो चुका था। उनकी अनेक कविताओं में प्रयोगवाद का प्रारंभिक रूप देखने को मिल जाता है। परन्तु इसका प्रतिष्ठित रूप अज्ञेय के तार सप्तक से ही माना जाता है।यह मूलतः अस्तित्ववाद से प्रेरित है जिसके प्रवर्तक सारेन कीकगार्द है। प्रयोगवाद की अवधि  1943 ई.  से 1953 ई. तक मानी जाती है।तार सप्तक के सात कवि थे - मुक्तिबोध , नेमिचन्द्र जैन , भारत भूषण अग्रवाल , प्रभाकर माचवे , गिरिजा कुमार माथुर , रामविलास शर्मा और अज्ञेय ।
           प्रयोगवाद नाम अज्ञेय के तार सप्तक का ही दिया हुआ है। तारसप्तक में अज्ञेय जी का एक वक्तव्य है - " प्रयोग सभी काल के कवियों ने किएं हैं । किन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, आगे बढ़कर अब उन्हीं क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी तक छुआ नहीं गया था जिनको अभेद्य मान लिया गया है। "
       वस्तुत: ऊपरी तौर पर देखा जाए तो सभी कवि एक नयी काव्य धारा के अवश्य दिखाई देते हैं परन्तु इनमें वैचारिक मतभेद है। कोई विचारों से समाजवादी हैं तो अपने संस्कारों से व्यक्तिवादी । कोई पूरी तरह से समाजवादी हैं तो कोई पूरी तरह से व्यक्तिवादी ।इस प्रकार ये सभी विचारों से अलग अलग हैं।इस सम्बन्ध में अज्ञेय जी ने तारसप्तक की भूमिका में कहा है कि - " ऐसा होते हुए भी वे एकत्र है , संग्रहित हैं।......इसका कारण है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं । किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं , राही है , राही भी नहीं राहों के अन्वेषी । उनमें मतैक्य नहीं है। सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है।जीवन के विषय में , समाज , धर्म और राजनीति के विषय में , काव्य वस्तु और शैली के , छंद और तुक के  कवि के दायित्व के प्रत्येक विषय में मतभेद है । तथापि इसकी विभिन्नता होते हुए भी काव्य के क्षेत्र में एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बांधता है।
प्रयोगवादी काव्य धारा में मुख्य रूप से कविता में नये नये प्रयोगों को स्वीकार किया गया है। पुरानी परम्पराओं को निष्क्रिय घोषित किया गया है। कविता को जनजीवन से उत्पन्न मानकर उसे कल्पना लोक से बाहर निकाल कर यथार्थ के धरातल पर खड़ा किया गया है। इसमें शब्दों को तोड़ मरोड़कर नये बिम्ब प्रतीक की योजना की गई है।यह छायावाद की अतिशय काल्पनिकता के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुई है। अतः इसमें पूर्णतः यथार्थ का समावेश किया गया है। अज्ञेय जी ने इसे प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने तार सप्तक के माध्यम से ऐसे कवियों को पाठकों के सामने ला खड़ा किया है जो नयी धारा के कवि थे , नये प्रयोगों के अन्वेषी थे परन्तु उनका कोई स्वतंत्र संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका था।इस सम्बन्ध में उनका कथन हैं कि - " स्मरण रहे कि मूल योजना यही थी कि सप्तक ऐसे कवियों को सामने लाएगा जिनके स्वतंत्र संग्रह प्रकाशित नहीं हुएं हैं और जो इस प्रकार भी नये हैं।"
        अज्ञेय जी ने तार सप्तक के अतिरिक्त अपने   'प्रतीक ' मासिक पत्रिका  के माध्यम से भी प्रयोग वादी कविता का व्यापक प्रकाशन किया है। इस प्रकार प्रयोग वाद को एक नयी काव्य धारा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय पूर्णतः अज्ञेय जी को है। जिन्होंने अपने तार सप्तक के माध्यम से नये नये कवियों को प्रमुखता से सामने लाने का महान कार्य किया।और कविता को छायावाद की वायवीय कल्पना से बाहर निकालते हुए नये नये प्रयोगों द्वारा प्रयोग वाद के यथार्थ धरातल पर स्थापित किया।इस सम्बन्ध में डाॅ नगेन्द्र का कथन है कि - " भाव क्षेत्र में छायावाद की अतीन्द्रियता और वायवी सौंदर्य चेतना का विकास और सौंदर्य की परिधि में केवल मसृण और मधुर के अतिरिक्त परुष , अनगढ़ और भदेश का भी समावेश हुआ। "बाद में प्रयोग वादी कविता अतिशय बौद्धिकता प्रधान हो गयी । इसकी दुरुहता और अस्पष्टता के कारण अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी।
        

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