सूरदास की भक्ति भावना

सूरदास के काव्य में निहित भक्ति का स्वरूप
                                          (स्रोतः इन्टरनेट)

             हिन्दी साहित्याकाश में सगुणोपासक कृष्ण भक्त कवियों की परम्परा में सूरदास का स्थान अनन्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- ‘‘जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार कृष्ण चरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का। वास्तव में ये हिन्दी काव्य गगन के सूर्य और चन्द्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्त शिरोमणि कवियों की वाणी में पायी जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है कि-

‘‘उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बलवीर।

केशव अर्थ गंभीर को, सूर तीन गुन धीर ।।’’

इसी प्रकार सूरदास की प्रशस्ति में किसी कवि ने यह भी कहा है कि- 

‘‘किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर।

किधौं सूर को पद लग्यों, बेध्यो सकल सरीर ।।’’

सूरदास बल्लभाचार्य के शिष्य थे। बल्लभाचार्यजी के सम्पर्क में आने से पूर्व सूरदास जी आगरा-मथुरा मार्ग पर यमुना किनारे गऊ घाट पर रहते थे और विनय के पद बनाकर गाया करते थे। एक बार बल्लभाचार्यजी गऊ घाट पर आए तब सूरदास ने उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया। बल्लभाचार्यने कहा- ‘‘सूर है कै घिघियात काहे को है, कछु भगवल्लीला बरनन करि।’’ तब बल्लभाचार्य जी सूरदास को अपना शिष्य बनाकर पारसौली ले गये और गोवर्धन स्थित श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने का कार्य सौंपा। बल्लभाचार्यजी ने सूरदास को श्रीमद्भागवत की कथा भी सुनायी। तब से सूरदास जी बल्लभाचार्यजी से प्रेरित होकर श्रीमद्भागवत के आधार पर कृष्ण की बाल लीला, सख्य, माधुर्य और वात्सल्य भाव के पदों की रचना करने लगे। अपने काव्य ग्रंथ सूरसागर में उन्होंने भागवत पुराण को उपजीव्य मानकर राधा कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन किया है।

सूर की भक्ति भावना सर्वप्रथम उनके विनय के पदों में व्यक्त हुई है। उनमें विनय की सातों भूमिकाएँ दीनता, मान-मर्शता, भय-दर्षन, भर्त्सना राज्य,आश्वासन और विचारणा विद्यमान है तथा वैष्णव सम्प्रदाय के छः नियमों का पालन भी स्पष्टतः दृष्टिगोचर है। ये छः नियम इस प्रकार है- इष्ट देव की अनुकूलता का संकल्प, प्रतिकूल बातों का परित्याग, अपने आराध्य में दृढ़ विश्वास,
आराध्य का यशोगान, सर्वस्व समर्पण की भावना और दैन्य-निरूपण। बल्लभाचार्यजी से पुष्टिमार्ग में दीक्षा लेने के बाद इनकी भक्ति का मूलाधार पुष्टिमार्गीय हो गया। पुष्टि मार्ग में सेवा को विशेष महत्व दिया जाता है। सेवा दो प्रकार की बताई गयी है- नाम सेवा और स्वरूप सेवा। स्वरूप सेवा के भी तीन भेद किए गये हैं- तनुजा, वित्तजा और मानसी। शरीर से की गयी सेवा को तनुजा कहते हैं, धन से की गयी सेवा को वित्तजा कहते हैं और मन से की गयी सेवा को मानसी कहते हैं। मानसी सेवा भी दो प्रकार की बताई गयी है- मर्यादामार्गीय और पुष्टिमार्गीय। सूरदास इसी पुष्टिमार्ग के कवि थे। पुष्टिमार्ग के अनुसार श्री कृष्ण को परब्रह्म मानकर सूरदास जी ने मित्र की भाँति उनकी भक्ति की है। इसके अन्तर्गत कृष्ण के मधुर रूप की उपासना की जाती है। पुष्टिमार्गीय भक्ति का वैशिष्ट्य है- सद्योमुक्ति। इसमें भगवान स्वयं अपने भक्त का ध्यान रखते हैं। भक्त अपना सुख-दुःख, कष्ट, दैन्य, दारिद्रय सब विसर्जित कर भगवान की शरण में पूर्ण आस्था और शान्त भाव से निमग्न हो जाता है-

‘‘जा पर दीनानाथ ढरै ।

सोइ कुलीन बड़ौ सुन्दर सोइ जा पर कृपा करै ।

सूर पतित तरि जाय तनक में जो प्रभु नेक ढरै ।।’’

भगवत्कृपा को प्राप्त करने के लिए सूरदास जी की भक्ति में अनुग्रह की ही प्रधानता है। इसमें ज्ञान, योग, कर्म यहाँ तक कि उपासना को भी निरर्थक समझा जाता है। उन्होंने भगवदासक्ति के एकादश रूपों का वर्णन किया है। नारद भक्ति सूत्र के अनुसार आसक्ति के एकादश रूप है, जो इस प्रकार है- गुणामहात्म्यासक्ति, सख्यासक्ति, कान्तासक्ति, वात्सल्यासक्ति, आत्मनिवेदना सक्ति, तन्मयासक्ति और परम विरहासक्ति। सूरदास ने इन सभी आसक्तियों का वर्णन किया है। फिर भी उनका  मन सख्य, वात्सल्य, कान्त और तन्मयासक्ति में ही अधिक रमा है। तन्मयासक्ति का एक उदाहरण उल्लेखनीय है-

‘‘उर में माखन चोर गड़े ।

अब कैसहुँ निकसत नहिं ऊधौ तिरछै ह्वै जु अड़ै ।।’’

वात्सल्यासक्ति के अन्तर्गत किया गया सूर का वात्सल्य वर्णन पूरे विश्व हिन्दी साहित्य में अनुपम है। चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार- महात्मा सूरदास को जब श्री बल्लभाचार्यजी ने दीक्षित किया था तो उन्होंने श्री कृष्ण की बाल लीला पर ही सूर का ध्यान अधिक आकृष्ट कराया था। बल्लभाचार्यजी की प्रेरणा और श्रीमद्भागवत के आधार पर सूर ने श्री कृष्ण के बाल चरित का अत्यन्त व्यापक और मनमोहक वर्णन किया है। ये बाल मनोविज्ञान के पंडित थे। आँखे न होने पर भी बाल सुलभ चेष्टाओं, शरारतों इत्यादि का इन्हें बखूबी ज्ञान था। बाल मनोविज्ञान के ज्ञान के कारण इन्होंने वात्सल्य रस का इतना सजीव एवं स्वाभाविक वर्णन किया है जो आज तक कोई कवि नहीं कर सका है। इनका वात्सल्य रस वर्णन इतना सरस और मनमोहक है कि इसके लिए सूरदास को वात्सल्य रस सम्राट की उपाधि से विभूषित किया जा चुका है। इनका सूर सागर मनोहारी बाल वर्णनों से भरा पड़ा है। सूर ने कृष्ण जन्मोत्सव से बाल वर्णन प्रारम्भ किया है। माता यशोदा कृष्ण को पाकर धन्य हो गयी। वो हर समय बस कृष्ण के पास रहना चाहती हैं। उन्हें ही देखते रहना चाहती हैं। उनकी हर लीला में परम आनन्दित होती रहती है। जब वो कृष्ण को सुलाने के लिए पालना झुलाती हैं तो उस समय का वर्णन इतना स्वाभाविक है कि सामने दृश्य सा उपस्थित हो आता है-

‘‘जसोदा हरि पालनै झुलावै ।

हलरावै दुलरावै, मल्हावै जोई सोई कछु गावै ।।’’

इसी तरह सूरदास ने बाल जीवन की अनेक सामान्य लीलाओं का सजीव एवं मनमोहक चित्रण किया है। कृष्ण का साधारण बालकों की तरह मिट्टी खाना, अँगूठा चूसना, किलकारियाँ भरना इत्यादि। जब कृष्ण चलना सीख गये तो माता का हृदय यह देख कितना सुख पाता है इसका चित्रण देखिए-

‘‘चलत देखि जसुमति सुख पावै ।

ठुमकि-ठुमकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि-दिखावै ।।’’

जब कृष्ण धूल धूसरित होकर घुटनों के बल चलते हैं तब उनकी छवि कितनी सुन्दर लगती है-

‘‘सोभित कर नवनीत लिए ।

घुटरून चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए।।''

जब माता यशोदा कृष्ण को चलना सिखाती हैं तब उनका डगमगाता हुआ कदम कितना सुख देता है-

‘‘सिखवत चलत जसोदा मैया ।

अरबराय कर पानि गहावति, डगमगाय धरै पैयॉ ।।’’

माता यशोदा कृष्ण को बार-बार प्रलोभन देकर दूध पिलाती हैं कि दूध पीने से तुम्हारी चोटी बढ़ेगी। परन्तु जब ऐसा नहीं होता है तब कृष्ण कितना नादानी भरा प्रश्न माता यशोदा से करते हैं-

‘‘मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी ।

कितिक बार मोहि दूध पियत भई यह अजहु है छोटी ।।’’

इसके अतिरिक्त माखन चुराकर खाने पर जब गोपियाँ माता यशोदा के पास उलाहना लेकर जाती है और जब माता यशोदा उन्हें डाँटकर पूछती है तब वो कितना बाल सुलभ और सुन्दर झूठ उनसे बोलते हैं कि उन्होंने माखन नहीं खाया जबकि उनके मुँह पर माखन लगा हुआ था। उस समय उनकी बातें सुनकर उलाहना देने आयी गोपियाँ भी उनके प्रेम के वशीभूत होकर हँसने लगती हैं-
‘‘मैया मोरी! मैं नहि माखन खायो।’’

बैर परे ये ग्वाल बाल सब, बरबस मुख लपटायो ।।

भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो ।

चार पहर वंशीवट भटक्यौ, साँझ परे घर आयो ।।

देखि तुही छींके पर भाजन, ऊँचे धरि लटकायो ।

मैं बालक बहिंअन को छोटो, छींको केहि विधि पायो ।।

मुख दधि पौंछि कहत नँद नन्दन, दौना पीठि दुरायौ ।

डारि साँट मुसुकाइ तबहिं गहि, सुतकौ कंठ लगायौ ।।

इस प्रकार सूरदास का वात्सल्य वर्णन और बाल लीला वर्णन विश्व हिन्दी साहित्य में अनुपम है। इनके बाललीला सम्बन्धी पद हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। सूरदास अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं। डॉ0 राम कुमार वर्मा के शब्दों में- ‘‘बाल कृष्ण के शैशव में श्री कृष्ण के मनचले में, माँ यशोदा के दुलार में हम विश्वव्यापी माता-पुत्र के प्रेम को देखते हैं। इन्हीं विश्वव्यापी वृत्तियों के कारण सूर काव्य विश्व काव्य की श्रेणी में आ सकता है। सचमुच सूर के वात्सल्य का कोई बराबरी नहीं कर सकता।’’

विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में- ‘‘सूर के भाव चित्रण में वात्सल्य भाव श्रेष्ठतम है। बाल भाव और वात्सल्य से सने मातृ हृदय के प्रेम भावों के चित्रण में ये अपना सानी नहीं रखते हैं।’’

कान्तासक्ति से युक्त माधुर्य भाव की भक्ति के वर्णन में श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का चरम उत्कर्ष हुआ है। सूरदास ने प्रेम और विरह के द्वारा सगुण मार्ग से कृष्ण को साध्य माना है। उनकी भक्ति प्रेम प्रधान है। सूरदास जी के कृष्ण महाभारत या गीता के योगीराज राजनीतिज्ञ न होकर प्रेम स्वरूपा गोपिकाओं के चित्त में बसे हुए नटवर नागर, माखन चोर, नंद किशोर है। अपने इसी प्रेम भाव को पुष्ट करने के लिए उन्होंने गोपिकाओं के श्रृंगार मयी भाव का वर्णन किया है। राधा को कृष्ण की शक्ति का प्रतीक माना है और गोपियों को जागरूक आत्माओं का प्रतीक। वस्तुतः सूर सागर में सबसे विशद भाव दाम्पत्य रति का है। इसका पूर्ण विस्तार तीन स्थितियों में देखा जा सकता है। पूर्व राग की स्थिति में, प्रेम प्राप्ति के उपरांत संयोग और वियोग की स्थिति में और कृष्ण के मथुरा प्रवासोपरान्त चिर-वियोग की स्थिति में।

सूरदास का संयोग श्रृंगार वर्णन प्रथम दर्शन, दर्शनोपरान्त प्रथम सम्भाषण, पारस्परिक छेड़छाड़, विविध क्रिया-कलाप, प्रेम के विभिन्न प्रसंग, कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन आदि स्थितियों में देखा जा सकता है। इन सभी स्थितियों में सूर का संयोग वर्णन पूरी मधुरता के साथ चित्रित हुआ है। इन वर्णनों की श्रेष्ठता को देखते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि- ‘‘सूर का संयोग वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, वह तो प्रेम के संगीतमय जीवन की गहरी चलती हुई धारा है। जिसमें अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है।’’

इस सम्बन्ध में प्रथम दर्शन और प्रथम सम्भाषण की स्थिति दर्शनीय है। जहाँ एक दिन खेलते-खेलते कृष्ण यमुना तट पर पहुँचते है और राधा को देखकर पूछते हैं कि-

‘‘बुझत स्याम कौन तू गोरी?
कहा रहति काकी तू बेटी? देखि नाहि कबहू ब्रज खोरी।।’’

इस पर राधा का प्रत्युत्तर कितना चतुरता भरा और मनोहारी है-

‘‘काहे को हम ब्रजतन आवत खेलत रहत आपने पौरी ।

सुनत रहत स्रवननि नंद ढोटा करत रहत माखन दधि चोरी ।।’’

इसी प्रकार पारस्परिक छेड़छाड़ के प्रसंगों में और कृष्ण के सौन्दर्य में भी सूरदास का मनमोहक चित्रण उनकी माधुर्य भक्ति भावना को अभिव्यक्त करता है। श्रृंगार के संयोग पक्ष की तरह उसके वियोग पक्ष का वर्णन अत्यन्त मार्मिक एवं व्यापक है। इस सम्बन्घ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन सर्वथा उचित है कि- ‘‘वियोग की जितनी अन्तर्दशाएँ हो सकती है जितने ढंगो से उनका साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है वे सब प्रकार का वियोग वर्णन सूर साहित्य में विद्यमान है। कृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद प्रेम चिर-वियोग में बदल जाता है। सूर का वियोग वर्णन साक्षात् प्रणय हृदय की अभिव्यंजना है उसमें विरह की अनेक दशाओं-अभिलाषा, चिन्ता, गुणकथन, स्मृति, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण इत्यादि स्वाभाविक रूप से चित्रित है। उसमें राधा, गोपियाँ, कृष्ण और कालिन्दी, मधुबन, उद्धव और समस्त प्राकृतिक व सामाजिक परिवेश चित्रित है। उसमें संयोग जनित सुखों की मादक स्मृति है। सम्पर्क जनित प्रेम का ताप है, सहज विश्वास है और विविध स्थितियों के चित्र है। सूरदास ने गोपियों की तीव्र विरह वेदना की अभिव्यक्ति में प्रकृति के उन पदार्थों का भी वर्णन किया है जो उनके विरह में भी जैसे को तैसे बने हुए है। यथा-

‘‘मधुबन तुम कत रहत हरे ?

विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढे क्यो न जरे ?’’

भ्रमर गीत के प्रसंग में इनका विरह वर्णन अपनी चरमता पर पहुँच गया है इन पदों में परम विरहासक्ति के दर्शन होते हैं। श्री कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों को  जब उद्धव ज्ञान और भक्ति मार्ग का उपदेश देते हैं तब गोपियाँ अपनी वाक् चतुरता से उद्धव के ज्ञान और भक्ति को निरर्थक और अव्यावहारिक बताते हुए उद्धव को उत्तर विहीन कर देती हैं-

‘‘निरगुन कौन देस के बासी?

मधुकर कहि समुझाई सौंह दै बूझति साँच न हाँसी।।’’

इसी तरह गोपियाँ उद्धव के ज्ञान मार्ग पर अनेक तरह के व्यंग्य करती हुई उन्हें फटकारती हैं, जिससे उद्धव निरूत्तर हो जाते हैं। निम्न पदों में इस भाव को अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त किया गया है-

‘‘आयो घोष बड़ौ व्यौपारी।

लादि खेप गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।।

फाटक दै कर हाटक माँगत भोरे निपट सुधारी।

धुर ही लै खोटो खायो है लिए फिरत सिर भारी।।

इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी?

अपनो दूध छॉडि़ को पीवै खार कूप को पानी?

ऊधो जाहु सबार यहाँ ते बेगि गहरू जनि लावौ।

मुँह माँग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ।।’’

इस प्रकार वाक् चतुरता पूर्ण पदों से गोपियाँ उद्धव के ज्ञान मार्ग से अपने प्रेम मार्ग को श्रेश्ठ बताती है तथा इन पदों में उनकी परम विरहासक्ति के दर्शन होते हैं जो उनकी प्रेममयी भक्ति की चरमता को अभिव्यक्त करता है।

सूरदास के काव्य में भक्ति के दार्शनिक स्वरूप के भी दर्शन होते हैं। उन्होंने बल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत को अपनाया है और ब्रह्मजीव आदि का वर्णन करते समय सूक्ष्म बातों का भी यथा स्थान उल्लेख किया है। साथ ही ईष्वर माया, जीव काल और सृष्टि रचना का विशद वर्णन करके उन्होंने अपने भक्ति सिद्धान्तों को इतना पुष्ट और परिपूर्ण बना दिया कि उसमें एक ओर जहाँ गहन दार्शनिकता के दर्शन होते हैं वहीं जीवन की कोमल भावनाओं के कारण सुकुमारता, भावुकता और तल्लीनता के दर्शन भी होते हैं। सूरदास जी के दार्शनिक विचारों के विषय में डॉ0 द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा है- ‘‘बल्लभाचार्य के शिष्य होने के कारण सूर के दार्शनिक विचारों पर पूर्णतया बल्लभाचार्य का ही प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। मध्य युग के समस्त भक्ति प्रवर्तक आचार्यों ने शंकर के अद्वैतवाद एवं मायावाद का खण्डन किया था। इसी कारण स्वयं श्री बल्लभाचार्य ने भी शंकर के अद्वैत के स्थान पर दार्शनिक दृष्टि से शुद्धाद्वैत का प्रतिपादन किया तथा अद्वैत के साथ जो माया के मिथ्या तत्व की कल्पना थी उसे दूर करके सच्चिदानन्द ब्रह्म की अद्वैतता के शुद्ध रूप की व्याख्या की। बल्लभाचार्य ने निरूपित किया कि सत् चित और आनन्द स्वरूपों का पूर्ण तिरोभाव तथा सत् स्वरूप का अंशतः आविर्भाव किये हुए है। चिंतन जगत् भी ब्रह्म रहता है। इस तरह बल्लभाचार्य ने मायात्मक जगत को मिथ्या नहीं माना है। अपितु माया को ब्रह्म की ही शक्ति स्वीकार किया है जो उसी की इच्छा से विभक्त होती है और जीव अपने शुद्ध ब्रह्म रूप को तभी प्राप्त करता है जब आविर्भाव और तिरोभाव दोनों मिल जाते हैं और यह कार्य तभी सम्पन्न होता है जब ब्रह्म का अनुग्रह होता है। 

सन्दर्भ ग्रन्थ-

हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

हिन्दी साहित्य का इतिहास- डॉ0 नगेन्द्र

हिन्दी साहित्य का प्रवृत्तिमूलक अभिनव इतिहास- डॉ0 विवेक शंकर और श्रीमती उर्मिला साध।

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