कफ़न : सामाजिक विद्रूपता की कहानी
कफ़न कथाकार मुंशी प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है , जिसका प्रकाशन चाँद पत्रिका के अप्रैल 1936 के अंक में हुआ था। सामाजिक विद्रूपता को दर्शाती यह कहानी अति निम्न मजदूर वर्ग की यथार्थ स्थिति की व्याख्या करता है।यह ऐसी सामाजिक व्यवस्था की कहानी है जहां श्रमिक कठिन परिश्रम तो करता है किन्तु उसके हाथ कुछ नहीं आता।वह पूंजीपतियों के शोषण का शिकार हो कर अत्यंत निम्न दशा में जीवन यापन करता है जहां अन्तत: वह अकर्मण्य हो जाता है और उसकी सारी संवेदनशीलता समाप्त हो जाती है। जो बुधिया घास छीलकर और मजदूरी करके दोनों का भरण पोषण करती है उसी के मरणासन्न होने पर दोनों इतने संवेदनहीन हो जाते हैं कि दोनों इन्तजार करते हैं बुधिया मर जाए तो वह आराम से सोएं। आग में भूनते आलू बुधिया की जान से ज्यादा कीमती है। दोनों में से कोई बुधिया को देखने झोपड़ी के अंदर नहीं जाना चाहता क्योंकि अगर एक चला गया तो दूसरा उन आलूओं को खा जाएगा ।
कहानी के प्रारंभ में ही यह दृश्य अत्यंत हृदयविदारक है।जो पाठकों की संवेदनशीलता को अनायास ही अपनी ओर खींचता है। प्रेमचंद जी ने कहानी में स्थान स्थान पर ऐसे क्रूर दृश्यों की योजना करके मानवीय संवेदना को झकझोर कर रख दिया है।
कहानी दर्शाती है कि दिन रात मेहनत मजदूरी करके गृहस्थी की गाड़ी चलाने वाली बुधिया प्रसवपीड़ा में छटपटा रही है। परन्तु घीसू और माधव को उसकी कोई चिंता नहीं है। दोनों उसे देखने झोपड़ी के अंदर भी नहीं जाना चाहते हैं । क्योंकि दोनों को आग में भूनते आलू की परवाह है और जलते हुए ही उन्हें खाने की परवाह है भले ही इस काम में उनकी जबान क्यूं न जल जाए। दोनों बेगैरत बुधिया के मरने का इंतजार करते हैं कि वह मर जाए तो वे आराम से सोएं। इस तरह के दृश्य कहानी की भयावहता को बढ़ाते हैं।
बुधिया के तड़प तड़प कर मर जाने पर घीसू और माधव का रोते हुए जमींदार के पास जाकर गिड़गिड़ाना उनकी अकर्मण्यता और बहाने बाजी की प्रवृत्ति का परिचायक है। मुंशी प्रेमचंद जी ने कहानी में सूक्ष्म से सूक्ष्म मानवीय प्रवृत्ति को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।जो पाठकों के मन को झकझोरता हुआ आगे बढ़ता है।दोनों के संवेदनहीनता की पराकाष्ठा बुधिया के मर जाने पर कफ़न के लिए एकत्रित किए गए पाँच रूपए से कफ़न न खरीदकर पूड़ी चटनी अचार और कलेजियां खरीदकर खाने में और दारू पीने में देखी जा सकती है।
दोनों को किसी की परवाह नहीं थी कि लोग पूछेंगे कफ़न का क्या हुआ तो क्या जवाब देंगे? वे तो केवल खाने से ही अपनी आत्मा को तृप्त करने में लगे थे। घीसू अपने इतने दिन के अनुभव से जानता था गांव वाले कफन का इंतजाम कर ही देंगे । भले ही इस बार वे खुद लाएं। पैसे उन्हें न दे।
दोनों ने इसी तरह बेफिक्र होकर कफ़न के पैसे से पेटभर पूड़ियां खायी और बुधिया को ढ़ेरों आशीर्वाद दिया। उसने मरते मरते दोनों की यह लालसा जो पूरी कर दी थी।
इसी तरह की बातें करते , दोनों कभी भरपेट भोजन मिलने पर खुश होते तो कभी दुखी । माधव आँखों पर हाथ रखकर रोने लगता है।
इसी तरह समाज से बेफिक्र दोनों नाचते हैं गाते हैं, उछलते कूदते हैं। गिरते मटकते है। और अंततः नशे में मदमस्त हो कर वहीं गिर पड़ते हैं ।
वस्तुत: प्रेमचंद ने पूरे कहानी में भूख की विकरालता का विभत्स चित्रण किया है। अंगारों के समान जलते हुए आलू का जल्दी जल्दी पेट के अंदर भरते जाना , खाने की लालसा में छटपटाती हुई बुधिया को देखने तक नहीं जाना , जमकर खायी हुई पुरानी दावत को याद करना, कफ़न के पैसों का खाने पीने में खर्च करना ये सारे दृश्य भूख की त्रासदी को भयंकर रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।भूख के कारण ही मानव दानव बन जाता है।उसकी सारी मनुष्यता , नैतिकता , उचित-अनुचित का विवेक सब जाता रहता है।याद रहता है तो बस इस निरन्तर जलने वाली क्षुदाग्नि को शान्त करने का उपाय। उसकी मनोदशा दिन रात भूख शांत करने में ही रहती है। अत्यंत गरीब मजदूर वर्ग काम करने के बाद भी भरपेट भोजन न मिलने के कारण धीरे धीरे अकर्मण्यता की स्थति में आ जाता है।और उसकी सारी संवेदना क्षीण होने लगती है। कफ़न कहानी में इसी तथ्य को गहराई से उभारकर प्रस्तुत किया गया है।
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